Menu
blogid : 4238 postid : 1122490

व्यंग्य : सहिष्णुता की खोज

सुमित के तड़के - SUMIT KE TADKE
सुमित के तड़के - SUMIT KE TADKE
  • 196 Posts
  • 153 Comments

“भाई जिले!”
“हाँ बोल भाई नफे!”
“ये दूरबीन से किसकी जासूसी हो रही है?”
“भाई किसी की भी नहीं।”
“पर तू दूरबीन तो ऐसे इस्तेमाल कर रहा है, जैसे किसी जासूसी एजेंसी ने तुझे किसी की जासूसी करने के लिए नियुक्त कर रखा हो।”
“भाई ऐसा कुछ नहीं है। तू बेकार में ही शक कर रहा है।”
“शक करनेवाली बात ही है। हम यहाँ घाना पक्षी विहार में इसलिए आए थे ताकि प्रकृति का आनंद लेते हुए पक्षियों की चहचहाहट सुनकर घूमने-फिरने का मजा लें पर तू तो इस दूरबीन में खो गया।”
“असल में भाई मैं कुछ खोज रहा था।”
“वो क्या भला?”
“भाई सूबे और फत्ते ने इतने दिनों से हल्ला मचा रखा है कि देश से सहिष्णुता लापता हो गयी है।”
“तो फिर।”
“मैंने सोचा उसे खोजने में ये दूरबीन ही शायद कुछ मदद कर दे।”
“तो कुछ सफलता मिली?”
“अभी तक तो कोई सफलता नहीं मिली।”
“और मिलेगी भी नहीं।
वो क्यों भाई?”
“जो चीज कहीं गयी ही नहीं और पास ही हो तो वो ढूढ़ने पर भी नहीं मिलने की।”
“भाई तूने ऐसा क्यों बोला?”
“भाई सहिष्णुता तो हमारे दिलों में भरी हुई है।”
“ये तू कैसे कह सकता है?”
“अपने गाँव में रशीद चाचा रहते हैं।”
“हाँ तो।”
“तो जब उनकी बेटी रेहाना की शादी हुई थी, तब तूने उनकी तन, मन और धन से कितनी सेवा की थी। मुझे याद है कि तू उस दिन इतना व्यस्त हो गया था कि खाना खाना भी भूल गया था। सही कहूँ तो तू इतना मगन हो रखा था, जैसे कि तेरी सगी बहन की शादी हो।”
“हाँ तो वो सगी बहन से कम थोड़े ही है। बचपन से ही मुझे राखी बाँधती है। अब उसकी शादी में इतना कुछ करना तो अपना फर्ज बनता था।”
“हाँ बिलकुल फर्ज बनता था। पर एक बात बता। कभी तेरे मन में एक पल को भी ख्याल आया कि जिसकी शादी में तू अपनी देह तोड़ रहा था वो किसी और धर्म की है।”
“सही बोलूँ तो भाई मैंने अपनी बहन और रेहाना में कभी कोई भेद नहीं किया और न कभी मेरे दिमाग में ख्याल आया कि वो अलग धर्म की है।”
“जब किसी से सम्बन्ध प्रेम और स्नेह से पूर्ण हों तो इस तरह के ख्याल आते भी नहीं हैं।”
“भाई तू ठीक कह रहा है।”
“हाँ और इससे सिद्ध होता है कि सहिष्णुता तेरे भीतर कूट-कूटकर भरी हुई है। और तुझमें ही क्यों हर भारतीय के दिल में इसका वास है।”
“फिर भाई ये सूबे और फत्ते सहिष्णुता गायब होने का मुद्दा उठाकर हल्ला क्यों मचा रहे हैं?”
“भाई सूबे तुक्कड़ कवि है और इधर-उधर से उड़ाकर उसने दो-चार कविताएँ बना लीं और उन्हीं कविताओं को कवि सम्मेलनों और अन्य कार्यक्रमों में सुनाकर अपनी रोजी-रोटी चला लेता है। उसे ये कार्यक्रम उसके गुरु फकीर चंद की कृपा से हासिल हो रहते थे। फकीर चंद पर पिछली सरकार की विशेष कृपा रहती थी। इस तरह गुरु-चेले की जिंदगी मौज से कट रही थी, लेकिन जबसे नई सरकार आयी फ़कीर चंद के साथ-साथ उनका चेला सूबे भी फ़कीर बनकर जीवनयापन को विवश हो गया। इसी प्रकार फत्ते जिस अख़बार में टटपुंजा पत्रकार है उसका बॉस भी अपने अख़बार द्वारा पिछली सरकार के गुण गा-गाकर जहाँ अख़बार के लिए ढेर सारे विज्ञापन पाता था, वहीं विदेश यात्राओं का सुख भी भोगता था। पिछली सरकार के संग-संग अख़बार की भी नैया डूब गयी और अब हालत यह है फत्ते और उसके साथी पत्रकारों की रोजी-रोटी तो किसी तरह चल रही है पर वो पहले वाला सुख नहीं मिल पा रहा है। इसीलिए सूबे, फत्ते और उन जैसे जाने कितने पट्ठे सहिष्णुता गायब होने को लेकर विधवा विलाप कर रहे हैं।”
“बड़े धूर्त हैं ये तो।”
“बिलकुल भाई। अच्छा सहिष्णुता ही देखनी है तो सामने देख।”
“सामने! भाई सामने क्या देखूँ?”
“सामने उन सफ़ेद सारसों को देख। ये सारस इस समय साइबेरिया से यहाँ घूमने आते हैं। इनकी मस्ती से की जाने वाली अठखेलियाँ को देखकर लगता कि यहाँ इस देश में इन्हें कोई खतरा हो सकता है। ये उदाहरण उन लोगों को दिया जा सकता है जो सहिष्णुता के लापता होने का डर दिखा गाँव, शहर या फिर देश छोड़ने की बात करते हैं। “
“हाँ भाई ये बात तो ठीक है पर सहिष्णुता का ये उदाहरण दिखाने के लिए इन सारसों को गाँव कैसे ले जाया जाए?”
“इन सारसों को साथ ले जाने की कोई जरुरत नहीं। तू उन्हें अपना दिल और उसमें भरी सहिष्णुता दिखा देना।”
“पर भाई मैं कोई बजरंग बली थोड़े ही हूँ जो अपना सीना चीर के सहिष्णुता दिखा दूँगा।”
“भाई सीना चीरकर दिखाने की कोई जरुरत नहीं लोग मन की आँखों से इसे देख लेंगे।”
“और जो न देख पाये तो।”
“तो समझो उनका मन ही दूषित है।”
“हा हा हा ये भी तूने खूब कही।”

लेखक : सुमित प्रताप सिंह

sumitpratapsingh.com

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh