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क्या वाकई में इस्लाम इतना कमज़ोर है

सुमित के तड़के - SUMIT KE TADKE
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क्या वाकई में इस्लाम इतना कमज़ोर है कि मस्जिद से कोई लाऊड स्पीकर उतारने को बोल दे तो इस्लाम खतरे में है. कोई घर वापसी कराए तो इस्लाम खतरे में कहीं दंगे हो तो खतरा. अमरीका में टावर गिरे तो खतरा. “शर्ली अब्दों” पत्रिका ने मोहम्मद साहब का कार्टून छाप दिया तो १२ पत्रकारों को मौत के घाट उतार दिया. ये काम किया एक ऐसे गिरोह ने, जो इस्लाम के नाम पर मासूम बच्चो को भी मारने से नहीं डरता. जिस पत्रिका ने यह कार्टून छापा उसकी पहले केवल १५००० हजार प्रतियाँ छपती थीं, लेकिन इस हादसे के बाद लाखों की संख्या में इसकी प्रतियाँ छपीं और इससे करोड़ों रूपये कमाए गए. किस की वजह से आप भली-भांति समझ सकते हैं. क्या हम ऐसे लोगों के बहकावे में आ गये जो सिर्फ और सिर्फ कातिल हैं. जिनका इस्लाम से कुछ भी लेना-देना नहीं है. उन्हें तो हुकूमत करने के लिए हर वो काम करना है जो उन्हें राजगद्दी तक पहुचाये. आप एक बात पर ध्यान दें क्या कोई भी मुसलमान यह दावा कर सकता है कि मोहम्मद साहब की कोई भी तस्वीर दुनिया में मौजूद है. अगर नही तो फिर हमें उनके तथाकथित कार्टून से क्या लेना-देना. मुसलमानों को अपनी खुद की तरक्की समाज और देश की तरक्की के बारे में सोचना होगा. जितने वफादार हम दीन के हैं, उतने ही क्यों न देश के भी हों. कोई भी हमारी भावनाओं को भड़काकर दीन के नाम पर हमारा शोषण न कर सके. कुछ लोगो का तो सिर्फ ये ही काम है कि हमारी कौम को किसी भी तरह शिक्षा से दूर रखा जाये ताकि हम रेहड़ी-पटरी लगानेवाले और मज़दूर ही बने रहें. हमारे धर्म के तथाकथित ठेकेदार सिर्फ चंदा वसूलकर मदरसों में हमारे बच्चों को केवल हाफिज और मौलाना ही बनाने का काम करते रहेंगे. डॉक्टर और इंजीनीयर या बनाने का ख्वाब शायद जन्नत में ही पूरा हो पायेगा. हमारी कौम को अब तो जागना ही होगा और धर्म के तथाकथित ठेकेदारों और राजनितिक दलालों के पीछे भेड़-बकरियों की तरह पीछे चलने की पुरानी आदत छोडनी ही होगी. दुनिया मंगल ग्रह तक पहुँच गई लेकिन हम अभी तक उसी बीती दुनिया में खोये हुए सो रहे हैं और यह सब मानने को बिल्कुल भी तैयार नहीं है. इस लेख को सभी भाई खासकर मुसलमान भाई जरूर पढ़ें और यह सोचें कि अपने बच्चों को ऊँची तालीम दिलवाएँ जिससे कि हमारे बच्चे पंचर लगाने की बजाय डॉक्टर बनकर किसी ऑपरेशन थिएटर में इंसान का ऑपरेशन करके उनकी ज़िन्दगी बचाने का काम करे या फिर रेहड़ी-पटरी पर चिल्लाकर सामान बेचने की बजाय इंजीनियर बनकर कहीं किसी पुल का निर्माण करवाते हुए अपने मुल्क की तरक्की में योगदान दे और यह साबित करे कि इस मुल्क को हमने भी कुछ बेहतर दिया है.

जय हिन्द! वंदे मातरम्!

रउफ अहमद सिद्दीकी

संपादक, जनता की खोज, नॉएडा

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