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हास्य व्यंग्य: पिल्ले का दुःख

सुमित के तड़के - SUMIT KE TADKE
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“शेरू क्या बात हो गई? आज चित होकर कैसे पड़े हुए हो?”

“जी मैं मर गया हूँ.”

“कहाँ मरे हो? ठीक-ठाक जीवित तो लेटे हुए हो.”

“मुझे ध्यान से देखिए. मैं वाकई में मर गया हूँ.”

“शेरू अब मजाक छोड़ भी दो.”

“आपको पता है, कि मैं कभी मजाक नहीं करता.”

“मजाक नहीं करते तो क्यों रट लगा रखी है मरने की?”

“मैं अकेला कहाँ कह रहा हूँ. पूरा देश कह रहा है, कि मैं मर गया हूँ. एक महोदय की कार के पहिये के नीचे आ कुचलकर मेरी मौत हो गई है.”

“अरे उन महोदय ने तो अपनी संवेदनशीलता बताने के लिये काल्पनिकता का सहारा लिया था.”

“वो तो ठीक है लेकिन उन्हें अपनी संवेदनशीलता को व्यक्त करने के लिये मुझे ही क्यों माध्यम बनाया. किसी और जीव का नाम भी तो ले सकते थे.”

“अब जबान का क्या कर सकते हैं. फिसलनी थी सो फिसल गई.”

“ख़ाक फिसल गई. उनकी जबान की फिसलन से भुगतना तो हम पिल्लों को पड़ रहा है.”

“ऐसा भला क्या हो गया?”

“ये पूछिए क्या नहीं हो गया? कल से माँ ने भौंक-भौंककर जीना हराम कर रखा है. कहती हैं कि किसी भी कार के आस-पास मंडराता दिखा तो खैर नहीं.”

“माँ ने कहा है तो उनकी बात मानो.”

“मान रहा हूँ और दुःख झेल रहा हूँ.”

“कैसा दुःख?”

“पहले जब भी मोहल्ले में कोई नई कार आती थी तो उसके टायरों को गीला करने का सौभाग्य मुझे ही मिलता था. अब जब भी कोई नई कार देखता हूँ तो उसके आगे माँ का भौंकता हुआ साया दिख जाता है और सारे अरमान कार के पहिये के नीचे कुचलकर मर जाते हैं.”

“ओहो लगता है तुम बहुत कष्ट झेल रहे हो. चलो कभी न कभी तो तुम्हारे कष्ट मिटेंगे.”

“ये कष्ट आज के हैं जो मिट पायेंगे.”

“मैं कुछ समझा नहीं.”

“आप इंसानों की कृपा से हम पिल्ले सदा कष्ट में ही रहेंगे.”

“वो भला कैसे?”

“आपको शोले फिल्म याद है?”

“हाँ कई बार देखी है. अच्छी फिल्म है.”

“देखी है तो उसका प्रसिद्ध डायलॉग भी सुना होगा.”

“उसके तो बहुत से प्रसिद्ध हैं. तुम कौन से डायलॉग की बात कर रहे हो?”

“ कुत्ते के बच्चे मैं तेरा खून पी जाऊँगा डायलॉग तो सुना ही होगा.”

“हाँ बहुत अच्छी तरह सुना है.”

“अब ये बताइए कि गलती गब्बर सिंह की थी तो भला कुत्ते के बच्चे या पिल्ले का खून पीने की बात क्यों की गई.”

“देखो असल में वो वीरू ने डकैत गब्बर सिंह का खून पीने के लिये कहा था.”

“यही तो मैं कहना चाहता हूँ. हममें और डकैतों में समानता करना कहाँ का न्याय है? हम जिसका भी खाते हैं मरते दम तक उसके वफादार बने रहते हैं. फिर भी सामाजिक जीवन और फिल्मों में दुश्चारित्रों की तुलना हमसे की जाती है.”

“मुझे यह बात मालूम है.”

“तो फिर आप इंसानों को समझाते क्यों नहीं कि इंसान इंसान है और कुत्ता कुत्ता है. दोनों में कोई तुलना नहीं हो सकती.”

“ठीक है मैं समझाने का प्रयास करूँगा.”

“इसके साथ-साथ यह भी समझाना कि पिल्ला कार के पहिये के नीचे आकर नहीं इंसानों के इंसानीपन के कारण मरता है.”

“देखो शेरू उन महोदय ने अपनी संवेदनशीलता बताने के लिये पिल्ले का सहारा लिया, लेकिन सत्ता लोलुप प्रजाति के लोग कुछ लोगों को पिल्ला ही समझते हैं और चाहते हैं, कि वो पिल्ला कभी बड़ा और समझदार न हो, क्योंकि वह बड़ा होकर समझदार हो गया तो अपने समाज और देश के अच्छे और बुरे को समझने लगेगा. उस पिल्ले की यह समझदारी इन सत्ता पिपासुओं की दुकानदारी बंद करवा देगी. इनका धंधा मंदा न हो जाए इसलिए इन्होंने उस काल्पनिक पिल्ले की मौत पर कोहराम मचा रखा है.”

“ऐसी बात है क्या?”

“हाँ बिल्कुल ऐसी ही बात है और इस बात को अपनी माँ को जाकर समझाना.”

“माँ को यह सब समझाना अपने वश की बात नहीं है. यह दायित्व तो आपको ही उठाना पड़ेगा.”

“अपने शेरू के लिये इतना तो कर ही सकता हूँ.”

“लगता है कि आप असली इंसान हैं. आपसे एक छोटी सी गुज़ारिश और है.”

“कहो.”

“मोहल्ले में हाल ही में आई नई कार सामने खड़ी है. उसके पहिये गीले करने की दिली ख्वाहिश है. अगर आप मेरी माँ का इधर आने का ध्यान रखें तो मैं इस ख्वाहिश को पूरा कर लूँ.”

“हा हा हा जाओ अपनी दिली ख्वाहिश जाकर पूरी करो. मैं तुम्हारी माँ का ध्यान रखता हूँ, लेकिन ध्यान रहे कार के पहिये के नीचे मत आ जाना.”

“जी बिल्कुल.”

सुमित प्रताप सिंह

इटावा, नई दिल्ली,भारत

चित्र गूगल बाबा से साभार

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